लेखक: अमित पांडेय
क्या हर बार की तरह केवल निंदा से आतंकवाद पर लगाम लगाई जा सकती है? क्या QUAD जैसे मंच की कड़ी और सख़्त बयानबाज़ी उन निर्दोष लोगों को न्याय दिला सकती है जिनकी जानें आतंकवाद की चपेट में आकर बेरहमी से छीन ली गईं? ये सवाल केवल कूटनीतिक प्रतिक्रिया का मूल्यांकन नहीं करते, बल्कि भारत की व्यापक विदेश नीति, रणनीतिक सोच और क्षेत्रीय नेतृत्व की दिशा पर भी गंभीर पुनर्विचार की मांग करते हैं। हाल ही में पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले ने फिर एक बार इस बहस को केंद्र में ला दिया है। इस हमले में भारत के कई निर्दोष नागरिक मारे गए, और उसके बाद QUAD—भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया का सामरिक समूह—ने एक स्वर में इस घटना की कड़ी निंदा की। उन्होंने “ज़ीरो टॉलरेंस फॉर टेररिज़्म” का पुनः संकल्प लिया और हमलावरों को न्याय के कटघरे में लाने की बात दोहराई।
पर क्या इससे कुछ बदला? क्वाड की इस निंदा के ठीक बाद, अमेरिका ने पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर का व्हाइट हाउस में भव्य स्वागत किया। वह भी ऐसे समय में जब पाकिस्तान पर दशकों से आतंकवाद को शह देने के आरोप लगते आए हैं। यही नहीं, अमेरिका के प्रभाव में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने पाकिस्तान को अरबों डॉलर का राहत पैकेज भी स्वीकृत कर दिया, जिससे न केवल उसकी वित्तीय हालत सुधरेगी, बल्कि उसकी सेना को अप्रत्यक्ष रूप से संसाधनों की नई ताकत मिलेगी—वो भी ऐसे वक्त में जब उसी पर भारत विरोधी आतंकी संगठनों को संरक्षण देने के आरोप हैं।
इन परस्पर विरोधी घटनाओं से यह सवाल उठता है कि क्या भारत वास्तव में QUAD जैसे मंचों से कुछ ठोस हासिल कर पा रहा है या फिर इन वैश्विक गठबंधनों में उसकी भूमिका केवल प्रतीकात्मक रह गई है? अमेरिका, जो QUAD का नेतृत्व करता है, एक ओर मंच से आतंकवाद के खिलाफ कड़ी बातें करता है, और दूसरी ओर उन्हीं देशों के सैन्य नेताओं को गले लगाता है जो आतंकवाद के पोषण के संदेह के घेरे में हैं। यह रणनीतिक पाखंड भारत के लिए केवल निराशा का कारण नहीं, बल्कि नीति निर्धारण के स्तर पर एक चेतावनी है कि कूटनीतिक मंचों की भाषा और वास्तविक राजनीति के व्यवहार में एक बड़ा अंतर हो सकता है।
भारत ने 2016 के उरी हमले के बाद दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (SAARC) को निष्क्रिय कर दिया था, क्योंकि पाकिस्तान लगातार सहयोग में बाधा बनता रहा। लेकिन इसके साथ ही भारत ने एक ऐसा मंच छोड़ दिया था जिसकी स्थापना खुद उसने की थी और जिससे वह पूरे दक्षिण एशिया में नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकता था। पाकिस्तान की अड़चनों से निराश होकर भारत ने इस संस्था को ही ठंडे बस्ते में डाल दिया, जिससे पाकिस्तान को अपने मंसूबे पूरे करने का परोक्ष अवसर मिल गया।
अब समय आ गया है कि भारत एक बार फिर SAARC को नए दृष्टिकोण से देखे—इस बार पाकिस्तान को केंद्र में रखे बिना। दक्षिण एशिया के अन्य सहयोगी देशों—जैसे बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका और मालदीव—के साथ मिलकर भारत एक ऐसा गठबंधन बना सकता है जो व्यावहारिक, लचीला और विकासोन्मुखी हो। “मल्टी-स्पीड सार्क” की अवधारणा के तहत भारत विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग को गति दे सकता है, चाहे वह डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर हो, जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य सेवाएं, व्यापार या शिक्षा। इन मुद्दों पर क्षेत्रीय एकता भारत को एक ऐसा नैतिक और रणनीतिक आधार देगी जो पश्चिमी मंचों की अस्थिरता से कहीं अधिक विश्वसनीय और टिकाऊ होगा।
जब SAARC निष्क्रिय हुआ तो भारत ने BIMSTEC (Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation) की ओर रुख किया, जो बंगाल की खाड़ी से जुड़े देशों के बीच सहयोग का मंच है। BIMSTEC पाकिस्तान को शामिल नहीं करता, और इस कारण यह मंच अधिक व्यावहारिक और सहमति-आधारित साबित हुआ है। भारत की पूर्वी नीति (Act East Policy) और इंडो-पैसिफिक रणनीति के तहत BIMSTEC एक अहम भूमिका निभा रहा है। परंतु इसका मतलब यह नहीं कि SAARC को पूरी तरह भुला दिया जाए।
BIMSTEC और SAARC दोनों के उद्देश्य अलग हैं—एक समुद्री और आर्थिक जुड़ाव को बढ़ाता है, दूसरा जमीन आधारित सहयोग और सुरक्षा को मजबूत करता है। भारत को इन दोनों मंचों को एकसाथ रणनीतिक समन्वय में लाकर एक संतुलित क्षेत्रीय नेतृत्व स्थापित करना चाहिए। BIMSTEC जहां भारत के समुद्री हितों और पूर्वी पड़ोसियों से संबंधों को मजबूत करेगा, वहीं SAARC भारत की भूमि सीमाओं से जुड़े पड़ोसियों के साथ साझेदारी को पुनर्जीवित कर सकता है।
हालिया पहलगाम हमला केवल एक आतंकी वारदात नहीं थी, बल्कि भारत के रणनीतिक विकल्पों पर एक कठोर टिप्पणी थी। QUAD की सार्वजनिक निंदा जितनी मुखर थी, उस मंच के सदस्य देशों की निजी कूटनीति उतनी ही कमजोर साबित हुई। यही वह द्वैधता है जिसने भारत की आवाज़ को बार-बार कमजोर किया है।
अब भारत को बयानबाज़ी से आगे बढ़कर ठोस रणनीति बनानी होगी—एक ऐसी रणनीति जिसमें संस्थागत नेतृत्व, पड़ोसी देशों के साथ साझेदारी और आत्मनिर्भर कूटनीति शामिल हो। भारत को केवल QUAD जैसे मंचों पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसे उन मंचों का भी निर्माण करना चाहिए जहां वह नियम तय करता हो, न कि सिर्फ दूसरों की चालों का जवाब देता हो। SAARC और BIMSTEC के माध्यम से भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ साझा विकास, सांस्कृतिक संवाद, डिजिटल समन्वय और सामूहिक सुरक्षा को एक नया आकार दे सकता है।
अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में बयान मायने रखते हैं, लेकिन दीर्घकालिक प्रभाव केवल उन देशों का होता है जो अपने संस्थानों और मंचों से नेतृत्व दिखाते हैं। भारत में यह क्षमता है—जनसंख्या, अर्थव्यवस्था, सैन्य शक्ति और लोकतांत्रिक मूल्यों के रूप में। आवश्यकता है तो बस एक दूरदर्शी दृष्टिकोण की, जो QUAD जैसी विश्व संस्थाओं पर अंध-निर्भरता छोड़कर क्षेत्रीय मंचों को पुनः भारत के नेतृत्व में सक्रिय करे।
कूटनीति केवल प्रतिक्रिया देने की प्रक्रिया नहीं है, यह नेतृत्व के निर्माण की प्रक्रिया है। भारत को अब यह तय करना होगा कि वह केवल दर्शक बना रहेगा या इस भू-राजनीतिक मंच पर निर्णायक भूमिका निभाएगा। SAARC के पुनरुद्धार के माध्यम से भारत दक्षिण एशिया की आवाज़ बन सकता है, न कि केवल QUAD की गूंज।