अमित पांडेय
केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) ने जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक और पांच अन्य के खिलाफ किरू हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के ₹2,200 करोड़ के सिविल वर्क्स के ठेके में कथित भ्रष्टाचार को लेकर चार्जशीट दाखिल की है। यह मामला अब सिर्फ कानूनी जांच तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसे राजनीतिक प्रतिशोध के रूप में भी देखा जा रहा है। सवाल उठ रहा है कि क्या यह कार्रवाई वास्तव में भ्रष्टाचार के खिलाफ है या फिर सरकार के आलोचकों को डराने की रणनीति?
सत्यपाल मलिक, जिन्होंने अगस्त 2018 से अक्टूबर 2019 तक जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के रूप में कार्य किया, ने पहले दावा किया था कि उन्हें दो फाइलों को क्लियर करने के लिए ₹300 करोड़ की रिश्वत की पेशकश की गई थी, जिनमें किरू परियोजना भी शामिल थी। उन्होंने यह जानकारी सार्वजनिक मंचों पर साझा की थी और खुद को भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने वाला एक ईमानदार व्यक्ति बताया था। लेकिन अब CBI द्वारा उन्हें आरोपी बनाए जाने से यह सवाल उठता है कि जिन लोगों पर उन्होंने आरोप लगाए थे, उनके बजाय स्वयं सत्यपाल मलिक को निशाना क्यों बनाया गया?
इस चार्जशीट की टाइमिंग भी महत्वपूर्ण है। मलिक हाल के वर्षों में कई बार केंद्र सरकार की नीतियों और कार्यप्रणाली की खुलकर आलोचना कर चुके हैं, खासकर सुरक्षा और सुशासन जैसे मुद्दों पर। उनके बयानों ने सरकार की छवि को नुकसान पहुंचाया और उन्हें सत्ता पक्ष के लिए एक असहज शख्स बना दिया। इसीलिए यह चार्जशीट एक राजनीतिक साजिश की तरह प्रतीत हो रही है, जिसका उद्देश्य एक असहमतिपूर्ण स्वर को चुप कराना हो सकता है।
CBI और प्रवर्तन निदेशालय (ED) जैसी जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली और निष्पक्षता पर पहले से ही सवाल उठते रहे हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2022 में CBI की दोषसिद्धि दर 74.59% थी, जबकि 2014 से 2023 तक ED की दोषसिद्धि दर 93.54% बताई गई है। हालांकि, इन आंकड़ों की वास्तविकता कुछ और है। उदाहरण के लिए, जनवरी 2023 तक ED ने 5,906 ईसीआईआर (Enforcement Case Information Report) दर्ज कीं और 513 लोगों को गिरफ्तार किया, लेकिन केवल 31 मामलों में ही ट्रायल पूरा हुआ, जिनमें सिर्फ 29 दोषसिद्धियाँ हुईं। इसका मतलब यह है कि दोषसिद्धि दर भले ही ज्यादा दिखती हो, लेकिन यह केवल बेहद कम संख्या में पूरे हुए मामलों पर आधारित है। इससे यह संकेत मिलता है कि इन एजेंसियों का उद्देश्य न्याय सुनिश्चित करना कम, और डर फैलाना ज्यादा हो सकता है।
भारत में जांच एजेंसियों का राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने का इतिहास रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में यह प्रवृत्ति अधिक स्पष्ट और तीव्र होती दिख रही है। आलोचकों का कहना है कि अब ये एजेंसियां सत्ता का औजार बनती जा रही हैं, जिनका इस्तेमाल असहमति को दबाने और विपक्षी नेताओं को मानसिक और कानूनी रूप से परेशान करने के लिए किया जाता है। सत्यपाल मलिक का मामला इसी संदर्भ में देखा जा रहा है, जहां भ्रष्टाचार पर कार्रवाई के बजाय राजनीतिक प्रतिशोध प्राथमिक उद्देश्य बनता प्रतीत हो रहा है।
इस पूरे प्रकरण से यह स्पष्ट होता है कि जब तक जांच एजेंसियां निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ काम नहीं करेंगी, तब तक उन पर जनता का विश्वास बहाल नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार पर कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन वह राजनीतिक एजेंडे से प्रेरित नहीं होनी चाहिए। सत्यपाल मलिक के खिलाफ CBI की चार्जशीट एक गंभीर सवाल खड़ा करती है—क्या अब सरकार से असहमति रखने वाला हर व्यक्ति संभावित आरोपी बन जाएगा?
जरूरत है कि जांच एजेंसियों को राजनीतिक दखल से मुक्त किया जाए और उन्हें संविधान के तहत स्वतंत्र रूप से कार्य करने दिया जाए। जब न्याय और जांच राजनीतिक हितों के अधीन हो जाते हैं, तो लोकतंत्र कमजोर होता है। अगर सरकारें वाकई भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं, तो उन्हें अपने आलोचकों को निशाना बनाने के बजाय उन लोगों पर कार्रवाई करनी चाहिए जिनके खिलाफ आरोप प्रमाणित हैं। सत्यपाल मलिक का मामला यही चेतावनी देता है कि संस्थाओं का राजनीतिक हथियार बनना देश के लिए खतरनाक संकेत है।
(लेखक, समाचीन विषयों के गहन अध्येता, युवा चिंतक व राष्ट्रीय-आंतरराष्ट्रीय मामलों के विश्लेषक हैं, रणनीति, रक्षा और तकनीकी नीतियों पर विशेष पकड़ रखते हैं।)