लेखक: अमित पांडेय
उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर ज़िले में 855 प्राथमिक विद्यालयों को संरचनात्मक रूप से असुरक्षित घोषित कर ध्वस्त करने का जो आदेश आया है, वह एक साधारण प्रशासनिक कार्रवाई नहीं, बल्कि भारत की शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक दृष्टिकोण और आर्थिक प्राथमिकताओं की गहराई से पड़ताल करने का अवसर बन गया है। इतने बड़े पैमाने पर स्कूलों को अचानक बंद करना और फिर तोड़ देने का फैसला न केवल स्थानीय बच्चों के भविष्य पर असर डालता है, बल्कि यह सवाल भी उठाता है कि क्या देश में शिक्षा को वास्तव में प्राथमिकता दी जा रही है या नहीं। एक तरफ सरकार 4 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का उत्सव मना रही है, दूसरी तरफ देश के लाखों बच्चों के सिर से छत छीन ली गई है। यह विरोधाभास न केवल चौंकाने वाला है, बल्कि चिंताजनक भी है।
प्रशासन का कहना है कि इन स्कूलों को तकनीकी जांच के आधार पर असुरक्षित घोषित किया गया और इन्हें गिराना छात्रों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी था। यह भी बताया गया कि बीएसए, ग्राम प्रधान और अन्य अधिकारियों की बैठक के बाद यह निर्णय लिया गया। हालांकि, स्थानीय समुदाय का कहना है कि उन्हें विश्वास में नहीं लिया गया और पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव रहा। स्कूलों का अचानक बंद किया जाना और वैकल्पिक योजना का न होना न केवल प्रशासनिक लापरवाही को दर्शाता है, बल्कि यह बच्चों के शिक्षा के अधिकार के भी खिलाफ है। कई ग्रामीणों ने इन फैसलों का विरोध किया है क्योंकि स्कूलों के विलय और बच्चों को दूर भेजने से उनकी उपस्थिति में भारी गिरावट आ रही है। छोटे बच्चों के लिए यह दूरी एक मानसिक, शारीरिक और शैक्षणिक बोझ बन जाती है।
प्रशासन ने दावा किया है कि कोई भी कक्षा असुरक्षित भवनों में नहीं लगेगी और वैकल्पिक व्यवस्था जल्द की जाएगी, लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि इन हजारों बच्चों के लिए न तो अस्थायी कक्षाएं स्थापित की गईं और न ही उन्हें पास के स्कूलों में समुचित ढंग से समायोजित किया गया। कई स्थानों से खबरें आई हैं कि बच्चे अब स्कूल नहीं जा रहे क्योंकि नए स्कूल दूर हैं, रास्ते कठिन हैं और अभिभावकों को बच्चों की सुरक्षा की चिंता है। इसका सीधा असर बच्चों की पढ़ाई, नियमितता और मनोबल पर पड़ा है। जब तक पुनर्निर्माण या मरम्मत नहीं होती, तब तक यह शिक्षा का नुकसान हर दिन बढ़ता जाएगा। दुर्भाग्यवश, अभी तक सरकार ने पुनर्निर्माण की कोई ठोस योजना या समयसीमा सार्वजनिक नहीं की है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि प्राथमिक शिक्षा फिलहाल प्राथमिकता नहीं है।
भारत जैसे देश में, जहां शिक्षा का अधिकार कानून 2009 में पारित हुआ था और संविधान का अनुच्छेद 21A हर बच्चे को 6 से 14 वर्ष की आयु में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार देता है, वहां इस तरह से स्कूलों का अचानक गायब हो जाना उस कानूनी संकल्पना की अनदेखी है। शिक्षा केवल पाठ्यक्रम का ज्ञान नहीं है, यह सामाजिक समानता, अवसर की उपलब्धता और राष्ट्रीय विकास की नींव है। जब इस नींव को ही कमजोर कर दिया जाए, तो हम किस प्रकार की प्रगति की बात कर सकते हैं?
शिक्षा की गुणवत्ता की बात करें तो ASER 2024 की रिपोर्ट बताती है कि केवल 23.4% सरकारी स्कूलों के कक्षा 3 के छात्र कक्षा 2 का पाठ पढ़ पाने में सक्षम हैं। यह आंकड़ा न केवल प्रणाली की कमजोरी को दर्शाता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि शिक्षा की गुणवत्ता और बुनियादी ढांचे में सीधा संबंध है। जब स्कूल ही नहीं रहेंगे, तो बच्चों को सीखने का अवसर कहां से मिलेगा? UDISE+ के 2023-24 आंकड़े बताते हैं कि देश के लगभग 1.5 लाख सरकारी स्कूलों में शौचालय, बिजली या पीने का पानी नहीं है। यह आंकड़े सिर्फ डेटा नहीं, बल्कि उस उपेक्षा का प्रमाण हैं, जो दशकों से प्राथमिक शिक्षा के साथ हो रही है। भारत का शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय अभी भी GDP का केवल 4.6% है, जबकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में इसे 6% तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया था। इस लक्ष्य से हम अब भी बहुत दूर हैं।
उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में, जहां पहले से ही शिक्षकों की भारी कमी है, वहां स्कूलों के टूटने का मतलब है और अधिक बोझ बढ़ना। शिक्षकों पर पहले से ही कई स्कूलों की ज़िम्मेदारी है और अब अगर बच्चों को एक स्कूल से दूसरे में शिफ्ट किया जाएगा, तो न केवल शिक्षकों की कार्यक्षमता प्रभावित होगी, बल्कि छात्रों को भी पर्याप्त समय और ध्यान नहीं मिल पाएगा। शिक्षा एक निरंतर प्रक्रिया है, और जब वह बार-बार टूटती है—कभी कोविड के कारण, कभी इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी के कारण—तो उसका सबसे बड़ा नुकसान गरीब, ग्रामीण और वंचित वर्ग के बच्चों को उठाना पड़ता है।
कानूनी और नैतिक दृष्टिकोण से देखें तो यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह स्कूलों की मरम्मत कराए, नए भवनों का निर्माण करे और तब तक बच्चों की पढ़ाई के लिए उपयुक्त और सुरक्षित वैकल्पिक व्यवस्था सुनिश्चित करे। यदि स्कूल जर्जर हैं तो यह सरकार की दीर्घकालिक उपेक्षा का परिणाम है। यह कोई अचानक उत्पन्न हुई समस्या नहीं, बल्कि वर्षों की लापरवाही, बजटीय कटौती और प्राथमिक शिक्षा के प्रति उदासीनता का नतीजा है। यदि मरम्मत और पुनर्निर्माण पर समय रहते ध्यान दिया गया होता, तो यह स्थिति उत्पन्न ही नहीं होती।
प्रशासनिक प्रक्रिया की पारदर्शिता पर भी सवाल उठ रहे हैं। क्या इन स्कूलों की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी से करवाई गई थी? क्या स्थानीय प्रतिनिधियों, ग्राम प्रधानों और अभिभावकों को पूरा भरोसे में लिया गया? या यह फैसला सिर्फ कागजी प्रक्रिया बनकर रह गया? विरोध के स्वर इस बात को रेखांकित करते हैं कि जनता को फैसले से पहले न जानकारी दी गई, न उनकी चिंताओं को समझा गया। इतने बड़े पैमाने पर स्कूलों को गिराना एक बड़ा निर्णय है, जिसे बिना व्यापक संवाद और तैयारी के लागू करना प्रशासनिक लापरवाही ही है।
शाहजहांपुर की यह घटना देश के लिए एक चेतावनी है। यह हमें बताती है कि विकास केवल GDP बढ़ाने से नहीं होता, बल्कि उन नीतियों से होता है जो समाज के सबसे कमजोर वर्गों को सशक्त बनाती हैं। जब तक शिक्षा को आंकड़ों और घोषणाओं से ऊपर उठाकर उसे ज़मीनी प्राथमिकता नहीं बनाया जाएगा, तब तक भारत का विकास अधूरा ही रहेगा। 4 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का वास्तविक अर्थ तब ही है जब देश का हर बच्चा सुरक्षित, समावेशी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सके। शिक्षा केवल स्कूल भवन नहीं, बल्कि एक सोच, एक अवसर है—जिसे हर हाल में संरक्षित और विकसित किया जाना चाहिए।
अब समय है कि सरकार इस पूरे प्रकरण पर पारदर्शिता लाए, वैकल्पिक व्यवस्थाएं तुरंत लागू करे, पुनर्निर्माण की स्पष्ट समयसीमा तय करे और यह सुनिश्चित करे कि बच्चों की शिक्षा बाधित न हो। यही प्रशासनिक संवेदनशीलता और जवाबदेही की असली कसौटी होगी। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक हम न तो एक विकसित राष्ट्र कहला सकते हैं, और न ही एक शिक्षित समाज।