अमित सिंह- एडिटर कड़वा सत्य
उत्तराखंड की पहाड़ी वादियों में सियासी हलचल शुरू हो चुकी है। 2027 के विधानसभा चुनावों की तैयारियाँ जोरों पर हैं, और इस बार कांग्रेस ने अपने पुराने योद्धा हरीश रावत के नेतृत्व में एक नया नारा गढ़ा है—उत्तराखंडियत। यह शब्द केवल एक नारा नहीं, बल्कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक पहचान को मजबूत करने का एक दृष्टिकोण है। हरीश रावत ने इस विचार को न सिर्फ अपनी राजनीतिक रणनीति का केंद्र बनाया है, बल्कि इसे जन-जन तक पहुँचाने का बीड़ा भी उठाया है। उनके इस अभियान में स्थानीय परंपराओं, भाषा, संस्कृति और अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने की बात है, जो उत्तराखंड को उसकी जड़ों से जोड़े रखने का प्रयास करती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह रणनीति 2027 में कांग्रेस को सत्ता के करीब ला पाएगी?
उत्तराखंडियत का विचार हरीश रावत के लिए नया नहीं है। उन्होंने हाल ही में अपने संस्मरण उत्तराखंडियत: मेरा जीवन लक्ष्य को फिर से लॉन्च किया, जिसमें उन्होंने राज्य की सांस्कृतिक और सामाजिक विशिष्टताओं को संरक्षित करने की जरूरत पर बल दिया। उनका मानना है कि उत्तराखंड की पहचान उसकी लोक संस्कृति, स्थानीय उत्पादों और पारंपरिक आजीविका में बसी है। इस दिशा में उन्होंने काफल जैसे स्थानीय फल को बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रम आयोजित किए, जो न केवल उत्तराखंड की कृषि को बल देता है, बल्कि लोगों को उनकी जड़ों से जोड़ता है। रावत का तर्क है कि स्थानीय संसाधनों और उत्पादों को प्रोत्साहन देकर न सिर्फ आर्थिक विकास होगा, बल्कि राज्य की अनूठी पहचान भी बरकरार रहेगी। यह दृष्टिकोण उस समय और भी प्रासंगिक हो जाता है, जब मौजूदा भाजपा सरकार पर उत्तराखंड की पारिस्थितिकी और सांस्कृतिक मूल्यों को नजरअंदाज करने का आरोप लग रहा है।
भाजपा सरकार ने उत्तराखंड में विकास के लिए उत्तर प्रदेश मॉडल को अपनाने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। इस मॉडल में बड़े उद्योगों को बढ़ावा देना, बुनियादी ढांचे का विस्तार और आधुनिक विकास पर जोर देना शामिल है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में सरकार ने कई परियोजनाएँ शुरू की हैं, जो रोजगार और आर्थिक प्रगति का वादा करती हैं। लेकिन हरीश रावत और उनकी पार्टी का कहना है कि यह मॉडल उत्तराखंड की नाजुक पारिस्थितिकी और सांस्कृतिक ताने-बाने के लिए खतरा बन सकता है। पहाड़ों की भौगोलिक और पर्यावरणीय विशेषताएँ ऐसी हैं कि यहाँ बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण प्रकृति को नुकसान पहुँचा सकता है। रावत की उत्तराखंडियत इस बात पर जोर देती है कि विकास हो, लेकिन वह स्थानीय जरूरतों और पर्यावरण के अनुकूल हो।
कांग्रेस ने इस रणनीति को और मजबूत करने के लिए कुछ ठोस माँगें भी उठाई हैं। इनमें उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों को संविधान की पाँचवीं अनुसूची के तहत लाने की माँग प्रमुख है। इससे स्थानीय समुदायों को अपनी भूमि, जंगल और प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक अधिकार मिलेंगे। यह माँग खासकर उन ग्रामीण और आदिवासी समुदायों के लिए महत्वपूर्ण है, जो अपनी आजीविका के लिए इन संसाधनों पर निर्भर हैं। हरीश रावत का मानना है कि ऐसी नीतियाँ न केवल स्थानीय लोगों को सशक्त करेंगी, बल्कि उनकी सांस्कृतिक पहचान को भी मजबूती देंगी।
लेकिन क्या यह रणनीति वास्तव में कांग्रेस को 2027 में जीत दिला पाएगी? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि उत्तराखंड में पिछले दो विधानसभा चुनावों—2017 और 2022—में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा है। भाजपा की संगठनात्मक ताकत और धामी सरकार की लोकप्रियता ने उसे एक मजबूत स्थिति में ला खड़ा किया है। भाजपा ने न केवल विकास के बड़े-बड़े वादे किए हैं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि को भी उत्तराखंड में भुनाया है। दूसरी ओर, कांग्रेस को संगठनात्मक कमजोरियों और नेतृत्व के आंतरिक मतभेदों से जूझना पड़ रहा है। ऐसे में उत्तराखंडियत का विचार कितना प्रभावी होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस इसे कितनी अच्छी तरह जनता तक पहुँचा पाती है।
हरीश रावत की रणनीति का एक बड़ा हिस्सा स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित है। पलायन, बेरोजगारी और ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं की कमी जैसे सवाल उत्तराखंड के लिए हमेशा से चुनौती रहे हैं। रावत का दावा है कि उनकी उत्तराखंडियत की सोच इन समस्याओं का समाधान स्थानीय स्तर पर ढूँढने में सक्षम है। मसलन, स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देकर छोटे उद्यमों को प्रोत्साहन देना, ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा देना और पारंपरिक कृषि को आधुनिक तकनीकों से जोड़ना। लेकिन इन विचारों को अमल में लाने के लिए कांग्रेस को एकजुट होकर काम करना होगा। साथ ही, उसे युवा मतदाताओं और शहरी आबादी को भी अपने साथ जोड़ना होगा, जो विकास के आधुनिक मॉडल की ओर आकर्षित हो सकते हैं।
उत्तराखंड की राजनीति में इस समय दो विचारधाराएँ आमने-सामने हैं। एक ओर भाजपा का विकास-केंद्रित मॉडल है, जो बड़े निवेश और बुनियादी ढांचे पर जोर देता है। दूसरी ओर, कांग्रेस का उत्तराखंडियत का दृष्टिकोण है, जो स्थानीयता और सांस्कृतिक पहचान को प्राथमिकता देता है। इन दोनों के बीच का मुकाबला रोचक होगा, क्योंकि यह इस बात पर निर्भर करता है कि मतदाता किसे अधिक प्रासंगिक मानते हैं। क्या वे विकास की चमक-दमक को चुनेंगे, या अपनी जड़ों और पहचान से जुड़े रहना चाहेंगे?
हरीश रावत की उत्तराखंडियत की रणनीति निश्चित रूप से कांग्रेस के लिए एक नई उम्मीद लेकर आई है। यह विचार न केवल स्थानीय लोगों के दिलों को छू सकता है, बल्कि उनमें अपनी पहचान के प्रति गर्व भी जगा सकता है। लेकिन इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि कांग्रेस इसे कितने प्रभावी ढंग से प्रचारित कर पाती है और क्या वह भाजपा की मजबूत संगठनात्मक मशीनरी को टक्कर दे पाएगी। 2027 का चुनाव न केवल दो दलों के बीच की जंग होगी, बल्कि यह उत्तराखंड की पहचान और भविष्य की दिशा तय करने वाला भी होगा।