अमित पांडे: संपादक
वंदे मातरम्—भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की आत्मा, सांस्कृतिक चेतना का शाश्वत स्वर और राष्ट्रीय अस्मिता का सबसे प्रखर प्रतीक। 1870 के दशक में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यह गीत केवल एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति नहीं था, बल्कि उस समय की मानसिक गुलामी के विरुद्ध एक वैचारिक क्रांति था। जब औपनिवेशिक शासन भारतीयता को पिछड़ा, अंधविश्वासी और हीन बताने में लगा था, तब वंदे मातरम् ने भारतीय मन में यह विश्वास जगाया कि यह भूमि केवल भूगोल नहीं, बल्कि एक जीवित, मातृस्वरूप सत्ता है। इसी भावभूमि पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कथन कि “वेदकाल से ही यह भूमि हमारी माता है और हम उसके पुत्र”—वंदे मातरम् की सांस्कृतिक जड़ों को पुनर्स्थापित करता है।
महात्मा गांधी ने 1905 में कहा था कि वंदे मातरम् इतना लोकप्रिय हो चुका है कि यह स्वाभाविक रूप से राष्ट्रीय गान बन गया है। यह कथन उस समय की जनभावना का सटीक प्रतिबिंब था। स्वदेशी आंदोलन के दौरान जब बंगाल विभाजन के विरोध में लाखों लोग सड़कों पर उतरे, तब वंदे मातरम् उनकी सामूहिक चेतना का घोष बन गया। यह गीत हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदायों के छात्रों, व्यापारियों और नेताओं द्वारा समान उत्साह से गाया गया। ऐतिहासिक अभिलेख बताते हैं कि 1905–1910 के बीच वंदे मातरम् के नारे के साथ निकले जुलूसों में धार्मिक भेदभाव का प्रश्न लगभग अप्रासंगिक था। यह गीत विभाजनकारी नहीं, बल्कि एकीकृत करने वाली शक्ति था।
इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री मोदी का यह प्रश्न—“वे कौन-सी शक्तियाँ थीं जिन्होंने गांधी की इच्छा के बावजूद वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गान बनने से रोका”—एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक विमर्श को जन्म देता है। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में कई निर्णय तत्कालीन राजनीतिक समीकरणों और संवेदनशीलताओं के आधार पर लिए गए। वंदे मातरम् के कुछ अंशों पर धार्मिक आपत्तियाँ उठीं, जबकि यह तथ्य अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यह गीत सभी समुदायों के संघर्ष का साझा प्रतीक था। यह प्रश्न केवल इतिहास का नहीं, बल्कि उस सांस्कृतिक आत्मविश्वास का भी है जिसे स्वतंत्रता के बाद कई बार दबाया गया।
बंकिमचंद्र का यह गीत उस समय लिखा गया जब अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी प्रभाव के कारण भारतीय संस्कृति को हीन दिखाना एक फैशन बन चुका था। ऐसे दौर में वंदे मातरम् ने भारतीय सभ्यता की गरिमा को पुनर्स्थापित किया। “सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्” केवल काव्यात्मक सौंदर्य नहीं, बल्कि भारत की भौगोलिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समृद्धि का घोष था। यह गीत वेदकालीन दृष्टि को पुनर्जीवित करता है—भूमि को माता मानने की वह परंपरा जो भारतीय चिंतन की मूल धुरी है।
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा वंदे मातरम् की ऊर्जा को आपातकाल के संदर्भ में याद करना भी ऐतिहासिक रूप से सार्थक है। 1975–77 के दमनकारी दौर में जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहरा था, तब भी कई आंदोलनों में वंदे मातरम् प्रतिरोध का सांकेतिक स्वर बना। यह इस गीत की दीर्घकालिक शक्ति का प्रमाण है कि यह केवल औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध ही नहीं, बल्कि किसी भी प्रकार के दमन के विरुद्ध खड़े होने का साहस देता है। यह गीत स्वतंत्रता सेनानियों के लिए “वार क्राई” था—एक ऐसी पुकार जो भय को परास्त कर देती थी।
आज जब वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूरे हो रहे हैं, तब यह केवल एक सांस्कृतिक उत्सव का अवसर नहीं, बल्कि इतिहास को पुनः पढ़ने और समझने का भी समय है। यह गीत हमें याद दिलाता है कि राष्ट्र केवल संविधान या शासन-व्यवस्था से नहीं बनता, बल्कि साझा भावनाओं, स्मृतियों और सांस्कृतिक चेतना से बनता है। वंदे मातरम् ने भारतीयों को यह एहसास कराया कि वे एक साझा सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं—एक ऐसी सभ्यता जो हजारों वर्षों से प्रकृति, संस्कृति और आध्यात्मिकता के समन्वय पर आधारित है।
आज के भारत में, जहाँ पहचान की राजनीति और ऐतिहासिक व्याख्याओं पर बहसें तेज हैं, वंदे मातरम् का पुनर्स्मरण हमें एक व्यापक, समावेशी और सांस्कृतिक रूप से आत्मविश्वासी भारत की ओर ले जा सकता है। यह गीत किसी एक विचारधारा का नहीं, बल्कि उस राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक है जिसने हमें स्वतंत्रता दिलाई। इसलिए प्रधानमंत्री का यह आह्वान कि 150वीं वर्षगांठ पर वंदे मातरम् की गौरव-परंपरा को पुनर्जीवित किया जाए, केवल सांस्कृतिक आग्रह नहीं, बल्कि ऐतिहासिक न्याय का भी प्रश्न है।
वंदे मातरम् हमें यह याद दिलाता है कि राष्ट्र की आत्मा उसकी सांस्कृतिक स्मृतियों में बसती है। जब हम इस गीत को सम्मान देते हैं, तो हम केवल एक रचना का नहीं, बल्कि उस संघर्ष, त्याग और स्वाभिमान का सम्मान करते हैं जिसने भारत को स्वतंत्र बनाया। 150 वर्षों के इस पड़ाव पर वंदे मातरम् का पुनर्स्मरण हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है और भविष्य की ओर आत्मविश्वास से बढ़ने की प्रेरणा देता है। यह गीत हमें बताता है कि भारत की शक्ति उसकी सांस्कृतिक निरंतरता, उसकी स्मृतियों और उसकी आत्मा में निहित है—और वंदे मातरम् उस आत्मा का सबसे उज्ज्वल स्वर है।






