लेखक: अमित पांडेय
“अगर भगवान नाराज़ नहीं हुए तो मैं अगस्त 2027 तक सेवा करूंगा” — यह कथन उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 10 जुलाई 2025 को जेएनयू के एक कार्यक्रम में दिया था। लेकिन मात्र 11 दिन बाद, 21 जुलाई को, उन्होंने अचानक इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा ऐसे समय आया जब संसद का मानसून सत्र शुरू हो चुका था और पहले ही दिन की कार्यवाही संपन्न हो चुकी थी। रात 7 बजे के बाद जब उनके इस्तीफे की खबर आई, तो पूरे राजनीतिक परिदृश्य में एक हलचल सी मच गई।
धनखड़ ने अपने इस्तीफे में स्वास्थ्य कारणों का हवाला दिया और कहा कि अब उन्हें अपने स्वास्थ्य को प्राथमिकता देनी है और चिकित्सकीय सलाह का पालन करना है। मार्च 2025 में उन्हें हृदय संबंधी समस्या के कारण AIIMS में भर्ती कराया गया था और बाद में एंजियोप्लास्टी की गई। जून में नैनीताल विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम के दौरान वह मंच पर बेहोश भी हो गए थे। हालांकि, जुलाई 21 को वह किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में बीमार नहीं दिखे, और उनके झुंझुनू (राजस्थान) दौरे की आधिकारिक घोषणा PIB द्वारा की गई थी, जो बताता है कि अचानक लिया गया यह निर्णय योजना का हिस्सा नहीं था।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यह वास्तव में स्वास्थ्य कारणों से लिया गया फैसला था, या इसके पीछे राजनीतिक समीकरणों का भी हाथ था? विपक्ष के कई नेताओं ने इसे एक “रहस्यमय” इस्तीफा बताया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने कहा कि यह इस्तीफा उस दिन आया जब धनखड़ ने पूरे दिन संसदीय कार्यक्रमों में भाग लिया और न्यायपालिका पर चर्चा हेतु सदन में विशेष प्रस्ताव की योजना बना रहे थे। इतना सक्रिय व्यक्ति एकाएक इस्तीफा क्यों देगा? यह सवाल महत्वपूर्ण है।
धनखड़ पहले ऐसे उपराष्ट्रपति बने जिनके खिलाफ विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव लाने की कोशिश की थी। दिसंबर 2024 में विपक्षी INDIA गठबंधन ने उन पर पक्षपाती व्यवहार, विपक्षी सांसदों को बोलने से रोकने, और संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाने जैसे आरोप लगाए थे। हालाँकि यह प्रस्ताव प्रक्रिया संबंधी कारणों से खारिज कर दिया गया, लेकिन यह स्पष्ट था कि उनके कार्यकाल में राज्यसभा का संचालन एकतरफा माना गया। वे कई बार विपक्षी सांसदों को सदन से निष्कासित कर चुके थे और कई महत्वपूर्ण विषयों — जैसे कि पेगासस, चुनावी बॉन्ड, कृषि आंदोलन — पर बहस नहीं होने दी गई।
धनखड़ का कार्यकाल न्यायपालिका के साथ विवादों से भरा रहा। दिसंबर 2022 में उन्होंने ‘बेसिक स्ट्रक्चर सिद्धांत’ पर सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहा कि संसद को सुप्रीम कोर्ट कैसे निर्देशित कर सकता है? अप्रैल 2025 में उन्होंने लखनऊ में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि “अनुच्छेद 142 का प्रयोग लोकतांत्रिक संस्थाओं के खिलाफ परमाणु मिसाइल की तरह किया जा रहा है।” यह वक्तव्य न्यायपालिका के अधिकारों को लेकर असहमति का संकेत देता है और संविधान विशेषज्ञों ने इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला बताया।
उनकी मुखरता सिर्फ न्यायपालिका तक सीमित नहीं थी। फरवरी 2025 में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उन्होंने कहा कि “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सरकार को गाली देने का लाइसेंस नहीं है।” इस बयान को नागरिक अधिकारों के विरुद्ध बताया गया। जून 2025 में नैनीताल में उन्होंने कहा कि “जजों को याद रखना चाहिए कि वे निर्वाचित नहीं हैं, लोकतंत्र मतदाता के पास है, न कि न्यायाधीशों की पोशाक में।” यह कथन भी न्यायपालिका की वैधता पर सवाल उठाने वाला माना गया।
सवाल यह भी उठता है कि क्या उनके इस्तीफे से सरकार को कोई रणनीतिक लाभ मिलेगा? क्या यह एक बड़ी राजनीतिक सर्जरी का संकेत है जिसमें कुछ और बड़े पदों पर बदलाव होंगे? इतिहास में वी.वी. गिरि और आर. वेंकटरमण जैसे उपराष्ट्रपतियों ने राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के लिए इस्तीफा दिया था। हालांकि, अभी ऐसी कोई घोषणा नहीं हुई है, लेकिन राजनीति में संकेत कभी-कभी शब्दों से अधिक स्पष्ट होते हैं।
उनके इस्तीफे के बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से उनकी “अनियोजित” मुलाकात की खबर भी सामने आई। इससे यह अटकलें और तेज हो गईं कि क्या कोई अंदरूनी सहमति या दबाव था? दूसरी ओर, सत्तापक्ष से भी कोई खास आग्रह नहीं दिखा कि वे अपने फैसले पर पुनर्विचार करें। यह चुप्पी अपने आप में बहुत कुछ कहती है।
अब उपराष्ट्रपति का पद खाली हो चुका है और संविधान के अनुच्छेद 68 के अनुसार, दो महीने के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य है। ऐसी संभावना है कि सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन जल्द ही एक नाम सामने लाएगा। तब तक राज्यसभा की कार्यवाही डिप्टी चेयरमैन हरिवंश नारायण सिंह देखेंगे।
जगदीप धनखड़ का इस्तीफा केवल एक व्यक्ति का पद छोड़ना नहीं है, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र में हो रहे गहरे बदलावों और संस्थाओं के बीच तनाव का संकेत भी है। आने वाले समय में यह स्पष्ट होगा कि यह एक साधारण इस्तीफा था या किसी बड़ी रणनीतिक योजना का पहला कदम।