अमित पांडे
महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के शेंदुरुसानी गांव की आबादी महज 1,500 लोगों की है, लेकिन सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (सीआरएस) में पिछले तीन महीनों में 27,397 जन्म दर्ज हो चुके हैं। आश्चर्यजनक रूप से, इनमें से अधिकांश नाम पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश से जुड़े हैं। साथ ही, सात मौतों का रिकॉर्ड भी संदिग्ध है। यह कोई चमत्कार या जनसंख्या विस्फोट नहीं, बल्कि एक विशाल साइबर फ्रॉड का प्रमाण है, जो ग्राम पंचायत के आईडी को मुंबई के सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम से लिंक करके फर्जी रजिस्ट्रेशन कराया गया।सुप्रीम कोर्ट के पानी वाले फैसले की तरह यह घटना भी सरकारी नीतियों की विफलता, भ्रष्टाचार की जड़ों और डिजिटल शासन की खामियों को उजागर करती है। जहां ‘डिजिटल इंडिया’ के बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं, वहां सिस्टम इतना कमजोर क्यों है कि एक छोटे से गांव का डेटा पूरे देश की जनगणना को झूठा साबित कर दे? यह घोटाला न केवल साइबर सुरक्षा की लापरवाही दिखाता है, बल्कि सरकारी योजनाओं में फर्जी लाभ हड़पने की साजिश को भी।
यह अनियमितता तब सामने आई जब ग्राम पंचायत ने सीआरएस पोर्टल पर असामान्य आंकड़े देखे। जांच में पता चला कि ये रिकॉर्ड गांव की सीमाओं से बाहर के हैं और संदिग्ध लगते हैं।
लेकिन सवाल यह है कि इतने बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा कैसे संभव हुआ? सीआरएस, जो जन्म-मृत्यु पंजीकरण के लिए 2009 से चालू है, को डिजिटल इंडिया के तहत मजबूत बनाने का दावा किया जाता है। फिर भी, सिस्टम में कोई मजबूत वेरिफिकेशन मैकेनिज्म नहीं है। आधार कार्ड या अन्य आईडी से लिंकिंग का नामोनिशान नहीं, बस एक साधारण आईडी से लाखों एंट्रीज। यह नीतिगत विफलता का जीता-जागता उदाहरण है। सरकारें ‘ई-गवर्नेंस’ की बातें तो करती हैं, लेकिन ग्रामीण स्तर पर ट्रेनिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर और साइबर सिक्योरिटी पर खर्च करने से कतराती हैं। नतीजा? ऐसे घोटाले जो न केवल सरकारी डेटा को अविश्वसनीय बनाते हैं, बल्कि करोड़ों रुपये की सब्सिडी योजनाओं को प्रभावित करते हैं।
भ्रष्टाचार यहां की मुख्य जड़ है। फर्जी जन्म प्रमाण-पत्रों का इस्तेमाल क्या-क्या लाभों के लिए हो सकता है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं। राशन कार्ड, पेंशन, स्कॉलरशिप, यहां तक कि वोटर आईडी या पासपोर्ट तक। पश्चिम बंगाल और यूपी के नामों से साफ लगता है कि यह इंटर-स्टेट स syndicate का काम है, जहां गरीब राज्यों के लोग फर्जी दस्तावेज बनवाकर सरकारी स्कीमों का फायदा उठाते हैं।
लेकिन यह स syndicate अकेला नहीं काम करता; इसमें स्थानीय पंचायत अधिकारी, साइबर एक्सपर्ट्स और यहां तक कि सरकारी कर्मचारी शामिल हो सकते हैं। याद कीजिए आधार डेटा लीक या राशन घोटालों को—हर बार वादा होता है जांच का, लेकिन कार्रवाई? शून्य। यवतमाल प्रशासन ने जांच के आदेश दे दिए हैं,लेकिन क्या यह सिर्फ कागजी फॉर्मेलिटी है? भ्रष्टाचार की यह चेन टूटेगी तभी जब सख्त सजा और पारदर्शिता हो। फिलहाल, यह घटना दिखाती है कि कैसे अमीर और प्रभावशाली लोग असली लाभ हड़पते हैं, जबकि गरीबों के लिए डिजिटल सिस्टम एक जाल बन जाता है। ग्रामीण भारत, जहां 70% आबादी रहती है, डिजिटल साक्षरता से कोसों दूर है। पंचायत सचिव को कंप्यूटर चलाना भी न आए, तो सिस्टम हैक कैसे रोकेगा?
पर्यावरणीय कोण से देखें तो यह घोटाला अप्रत्यक्ष रूप से संसाधनों की बर्बादी को भी दर्शाता है। फर्जी डेटा से जनगणना गड़बड़ाती है, जो जल, बिजली, स्वास्थ्य जैसी योजनाओं के आवंटन को प्रभावित करता है। मान लीजिए, इस फर्जी डेटा के आधार पर गांव को अतिरिक्त पानी या बिजली मिले, तो असली जरूरतमंद वंचित रह जाते। भारत पहले से ही जल संकट से जूझ रहा है, और गलत डेटा से नीतियां और बिगड़ेंगी। डिजिटल इंडिया का पर्यावरणीय प्रभाव सकारात्मक होना चाहिए था—पेपरलेस गवर्नेंस से पेड़ बचते, लेकिन भ्रष्टाचार ने इसे उल्टा कर दिया। साइबर फ्रॉड के लिए सर्वर चलाने में बिजली खर्च होती है, जो कार्बन फुटप्रिंट बढ़ाती है। सरकार पर्यावरण नीतियों में डिजिटल ट्रैकिंग जोड़ने की बात करती है, लेकिन बेसिक सिस्टम ही सुरक्षित नहीं। यह लापरवाही आने वाली आपदाओं को न्योता दे रही है।
इस घोटाले से सबक लेने की जरूरत है। सबसे पहले, सीआरएस को मजबूत बनाएं—बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन, जीआईएस मैपिंग और एआई-बेस्ड एनोमली डिटेक्शन जोड़ें। स्थानीय स्तर पर साइबर ट्रेनिंग अनिवार्य हो। भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस नीति अपनाएं, जहां फर्जी एंट्री पर तत्काल गिरफ्तारी हो। डिजिटल डिवाइड को पाटने के लिए ग्रामीणों को मोबाइल ऐप्स सिखाएं, ताकि वे खुद सिस्टम मॉनिटर कर सकें। लेकिन ये बदलाव तभी होंगे जब राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। वर्तमान में, ‘आत्मनिर्भर भारत’ के नारे लगते हैं, लेकिन सिस्टम आत्मनिर्भर नहीं, विदेशी सॉफ्टवेयर पर निर्भर हैं जो हैकिंग के लिए आसान शिकार हैं।
यवतमाल का यह सनसनीखेज मामला हमें झकझोरता है। 1,500 लोगों का गांव 27,000 जन्मों का घर कैसे बन गया? यह डिजिटल भारत की चमक-दमक के पीछे की कालिख है—नीतिगत विफलताएं, जहां वादे हवा-हवाई, भ्रष्टाचार जहां पनपता है जड़ों में, और पर्यावरणीय उपेक्षा जहां संसाधन बर्बाद होते हैं। अगर अब नहीं सुधरे, तो आने वाले घोटाले और बड़े होंगे। सरकार को कार्रवाई करनी होगी, वरना जनता का विश्वास टूटेगा। यह समय है सच्चे डिजिटल सुधार का, न कि सिर्फ जांच के वादों का।








