भारत में पेंशन व्यवस्था को लेकर बहस हमेशा से रही है, लेकिन 2025 में केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई यूनिफाइड पेंशन स्कीम (UPS) के बाद यह मुद्दा एक नई संवेदनशीलता और राजनीतिक ताप के साथ सामने आया है। UPS को पुराने डिफाइन्ड बेनिफिट मॉडल (OPS) और मार्केट-लिंक्ड डिफाइन्ड कॉन्ट्रिब्यूशन मॉडल (NPS) के बीच एक संतुलनकारी पहल के रूप में प्रस्तुत किया गया था। इसे एक सुधारात्मक कदम माना गया, जिससे सरकारी कर्मचारियों को पेंशन के क्षेत्र में अधिक स्थिरता और सुरक्षा मिलेगी।
लेकिन इसके लागू होने के कुछ ही समय बाद, यह योजना विवादों में घिर गई—और इसकी वजह थी केंद्रीय स्वायत्त संस्थाओं (CABs) के कर्मचारियों को UPS के दायरे से बाहर रखा जाना। ये संस्थाएं जैसे कि IITs, NITs, AIIMS, ICMR, CSIR, और केंद्रीय विश्वविद्यालय—जो शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान और नवाचार में देश की रीढ़ मानी जाती हैं—उनके कर्मचारियों को यह कहकर बाहर कर दिया गया कि वे “केंद्र सरकार के कर्मचारी नहीं हैं”।
यह कथन न केवल इन कर्मचारियों की सेवा भावना पर आघात करता है, बल्कि यह उस व्यवस्था की भी पोल खोलता है जो अपनी सुविधा के अनुसार नागरिकों और कर्मचारियों की परिभाषा बदलती है। जब नियुक्ति राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से होती है, वेतन केंद्र सरकार के कोष से आता है, कार्य मंत्रालयों के निर्देशन में होता है, तो आखिर किस आधार पर इन कर्मचारियों को ‘स्वायत्त’ मानते हुए UPS से बाहर रखा गया?
पेंशन: अधिकार या दया?
भारत जैसे देश में, जहां बेरोजगारी और सामाजिक असमानता गहराई से जड़ें जमाए हुए हैं, पेंशन सिर्फ एक वित्तीय योजना नहीं, बल्कि एक सम्मानजनक जीवन जीने का आधार है। यह सेवा के वर्षों के बदले में दी जाने वाली स्थगित मजदूरी है, न कि सरकार की कोई कृपा।
UPS को इस उद्देश्य से लाया गया था कि यह कर्मचारियों को OPS जैसी निश्चित पेंशन सुरक्षा प्रदान करेगा, जबकि सरकार पर वित्तीय बोझ NPS जैसा नियंत्रित रहेगा। इसमें ₹10,000 प्रति माह की न्यूनतम पेंशन, अंतिम 12 महीनों की औसत मूल वेतन का 50% (25 वर्षों की सेवा के बाद), और 18.5% सरकारी अंशदान जैसी सुविधाएं जोड़ी गईं—जो NPS से बेहतर और OPS से संतुलित मानी जा सकती हैं।
परंतु UPS के तहत एक गुप्त विभाजन रेखा खींच दी गई: केवल वे कर्मचारी जिन्हें मंत्रालयों या विभागों में नियुक्त किया गया है, UPS के पात्र माने जाएंगे। बाकी सभी—चाहे वे केंद्र सरकार द्वारा संचालित संस्थानों में काम कर रहे हों, या राष्ट्रीय मिशनों में योगदान दे रहे हों—इस योजना से बाहर रहेंगे।
“हम सरकार के लिए काम करते हैं, लेकिन सरकार के नहीं?”
IIT, CSIR, AIIMS, और अन्य CAB संस्थानों के कर्मचारियों में इस निर्णय के बाद व्यापक रोष है। ये वे लोग हैं जो कोविड-19 महामारी के दौरान फ्रंटलाइन पर थे, जो हर साल सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी कराने वाले प्रोफेसर हैं, जो विज्ञान और तकनीकी नवाचार में भारत को वैश्विक मंच पर स्थापित कर रहे हैं—और अब उन्हें बताया जा रहा है कि वे “केंद्र सरकार के कर्मचारी नहीं” हैं।
CSIR-NPL की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. प्रीति शर्मा कहती हैं, “हमारी भर्ती केंद्रीय सेवा आयोग (UPSC) या अन्य केंद्र सरकार की एजेंसियों के माध्यम से होती है, हमारा वेतन भारत सरकार के फंड से आता है, और हम मंत्रालयों को रिपोर्ट करते हैं—फिर हमें UPS से वंचित क्यों किया गया?”
यह सवाल केवल तकनीकी नहीं है, यह नैतिक और भावनात्मक है। यह इस बात से जुड़ा है कि एक राष्ट्र अपने कर्मयोगियों के साथ कैसा व्यवहार करता है।
सरकार का पक्ष: तर्क या बहाना?
सरकार की तरफ से इस फैसले के पीछे तीन मुख्य तर्क दिए जा रहे हैं:
- कानूनी स्वायत्तता: CABs को संसद द्वारा बनाए गए कानूनों या कार्यकारी आदेशों के तहत स्थापित किया गया है, इसलिए उनके कर्मचारी संविधान के अनुच्छेद 309 के तहत ‘केंद्रीय सिविल सेवक’ नहीं माने जाते।
- वित्तीय बोझ: UPS के लाभों को यदि सभी स्वायत्त संस्थाओं तक बढ़ाया जाए, तो सरकार पर ₹15,000–₹20,000 करोड़ का वार्षिक अतिरिक्त बोझ आ सकता है।
- प्रशासनिक जटिलता: हर स्वायत्त संस्था का प्रशासन अलग होता है, जिसके लिए UPS लागू करने हेतु उनके अधिनियमों में संशोधन करने पड़ सकते हैं—जो समयसाध्य और जटिल प्रक्रिया है।
लेकिन ये तर्क तब खोखले प्रतीत होते हैं जब CAB कर्मचारी केंद्र सरकार की योजनाओं को लागू करते हैं, नीतियां बनाते हैं, और उनके प्रशासनिक कामकाज में सीधे तौर पर मंत्रालयों की भागीदारी होती है।
JNU के सार्वजनिक वित्त विशेषज्ञ प्रो. नागराज कहते हैं, “यह कानूनी पेचीदगियों का सहारा लेकर प्रशासनिक असमानता को औचित्य देने की कोशिश है। ये लोग केंद्रीय दायित्व निभाते हैं, फिर उन्हें पेंशन में अलग क्यों माना जा रहा है?”
विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि यह निर्णय राजनीतिक संतुलन साधने के प्रयास का हिस्सा है। UPS के तहत लाभ सिर्फ उन कर्मचारियों को देना जो मंत्रालयों के अंतर्गत आते हैं, एक प्रकार से सरकार को सीधा राजनीतिक लाभ देता है। इससे एक सीमित दायरे में लोकप्रियता बढ़ती है, लेकिन व्यापक सरकारी तंत्र में असंतोष और विभाजन पैदा होता है।
UPS की यह सीमित रूप से लागू नीति एक दोहरी व्यवस्था को जन्म देती है—जहां एक ही सरकार के अधीन काम करने वाले कर्मचारियों को अलग-अलग पेंशन लाभ मिलते हैं, सिर्फ उनके संस्थागत लेबल के आधार पर।
यूनिफाइड पेंशन स्कीम को अगर वास्तव में ‘यूनिफाइड’ यानी एकीकृत बनाना है, तो उसे उन सभी कर्मचारियों को शामिल करना होगा जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत सरकार की सेवा में हैं—चाहे वे किसी मंत्रालय में हों या स्वायत्त संस्था में।
जब तक UPS इन संस्थानों के वैज्ञानिकों, शिक्षकों, और स्वास्थ्य कर्मियों को समान दर्जा नहीं देता, तब तक यह नीतिगत सुधार अधूरा और विभाजनकारी रहेगा।
यह केवल पेंशन की नहीं, बल्कि पहचान, सम्मान और समानता की लड़ाई है—जो यह तय करेगी कि भारत अपने राष्ट्रसेवकों को केवल उनकी उपयोगिता से देखता है या उन्हें उनका हक भी देता है।