अमित पांडे: संपादक
भारतीय लोकतंत्र में चुनाव आयोग की भूमिका हमेशा से केंद्रीय रही है। हरियाणा चुनाव विवाद ने इस संस्था की निष्पक्षता पर गंभीर प्रश्न उठाए हैं। राहुल गांधी के आरोप और भाजपा की तीखी प्रतिक्रिया ने जनता को उलझन में डाल दिया है कि किस पर विश्वास किया जाए। ऐसे समय में चुनाव आयोग की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि वह न केवल निष्पक्ष रहे बल्कि पारदर्शिता के माध्यम से जनता का विश्वास भी बनाए रखे।
यदि हम अंतरराष्ट्रीय उदाहरण देखें तो यह स्पष्ट होता है कि चुनावी संस्थाओं पर आरोप लगना कोई नई बात नहीं है। अमेरिका में 2020 के राष्ट्रपति चुनाव के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने चुनावी धांधली का आरोप लगाया था। लेकिन वहाँ की Federal Election Commission और अदालतों ने इन आरोपों को खारिज किया और चुनावी प्रक्रिया की वैधता को बरकरार रखा। इसने दिखाया कि संस्थाएँ कितनी मजबूत हैं और वे राजनीतिक दबाव के बावजूद अपनी विश्वसनीयता बनाए रख सकती हैं।
यूरोप में भी कई बार चुनावी पारदर्शिता पर सवाल उठे हैं। फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों में चुनाव आयोग जैसी संस्थाएँ स्वतंत्र रूप से काम करती हैं और किसी भी आरोप पर तुरंत जांच शुरू करती हैं। इससे जनता को यह भरोसा मिलता है कि उनकी आवाज़ दबाई नहीं जा रही। वहीं अफ्रीका और एशिया के कई देशों में चुनाव आयोग पर पक्षपात के आरोप अक्सर लगते हैं और कई बार जनता का विश्वास टूट जाता है। यही कारण है कि लोकतंत्र कमजोर पड़ता है।
भारत में चुनाव आयोग को इन अंतरराष्ट्रीय उदाहरणों से सीख लेनी चाहिए। केवल आरोपों को खारिज करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि हर शिकायत पर पारदर्शी जांच और जनता के सामने तथ्यों को रखना आवश्यक है। लोकतंत्र की असली ताकत जनता का विश्वास है और यह विश्वास तभी कायम रहेगा जब चुनाव आयोग हर आरोप का सामना खुलेपन और निष्पक्षता से करेगा।
हरियाणा विवाद हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमारी संस्थाएँ इतनी मजबूत हैं कि वे राजनीतिक दबाव से ऊपर उठकर जनता को यह भरोसा दिला सकें कि उनका वोट वास्तव में मायने रखता है। यदि चुनाव आयोग इस कसौटी पर खरा उतरता है तो भारतीय लोकतंत्र और भी मजबूत होगा।









