लेखक: अमित पांडेय
“यदा स्वराज्यं मूल्यं व्यापारस्य भवति, तदा राष्ट्रं केवलं बाज़ारः इव दृश्यते।” (जब संप्रभुता व्यापार की कीमत बन जाती है, तब राष्ट्र केवल एक बाज़ार बनकर रह जाता है।)
भारत और अमेरिका के बीच एक बहुप्रतीक्षित व्यापार समझौता 9 जुलाई से पहले अंतिम रूप लेने की ओर बढ़ रहा है। दिल्ली से इसका जो दृश्य प्रस्तुत किया जा रहा है, वह उत्सव जैसा है। इसे “ऐतिहासिक उपलब्धि”, “दोनों पक्षों के लिए लाभदायक”, और “निर्यातकों के लिए स्वर्ण अवसर” बताया जा रहा है। लेकिन इन चमकते नारों और राजनयिक मुस्कानों के पीछे एक गहरी चिंता छुपी हुई है—यह समझौता समान भागीदारों के बीच नहीं, बल्कि रणनीतिक दबाव में लिए गए निर्णयों जैसा प्रतीत होता है।
इस समझौते से भारत को जो सीमित टैरिफ राहत मिलने वाली है, उसका स्वागत किया जा रहा है। अमेरिका द्वारा इस्पात और एल्युमिनियम पर लगाए गए शुल्कों के प्रतिउत्तर में भारत ने भी कई उत्पादों पर कर लगाए थे। अब इन शुल्कों के समाप्त होने से कुछ राहत अवश्य मिलेगी, लेकिन बदले में भारत से जिन क्षेत्रों में छूट की मांग की जा रही है—जैसे कृषि, ऊर्जा, डिजिटल नीतियां, और बौद्धिक संपदा अधिकार—वे भारत की दीर्घकालिक नीतिगत संप्रभुता को कमजोर कर सकते हैं।
मौजूदा बातचीत के लीक हुए अंशों के अनुसार, अमेरिका चाहता है कि भारत GMO (जेनेटिकली मोडिफाइड ऑर्गैनिज़्म) आधारित खाद्य उत्पादों को अनुमति दे, डेयरी और पोल्ट्री बाजारों को अमेरिकी कंपनियों के लिए खोले, डेटा स्थानीयकरण पर नरम रुख अपनाए, और चिकित्सा उपकरणों की मूल्य नियंत्रण नीति को समाप्त करे। ये सभी मांगे भारत के नागरिकों के स्वास्थ्य, डेटा सुरक्षा, और कृषि स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती हैं।
सबसे बड़ी चिंता का विषय है कि यह व्यापार समझौता आर्थिक ही नहीं, बल्कि रणनीतिक झुकाव का भी संकेत देता है। अमेरिका की संसद में प्रस्तावित एक विधेयक के तहत राष्ट्रपति को बिना कांग्रेस की अनुमति के टैरिफ लगाने का अधिकार दिया जाएगा। यह भारत के लिए बड़ा खतरा है—जिसके साथ कभी भी “राजनीतिक मूड” बदलते ही आर्थिक दबाव डाला जा सकता है। विशेष रूप से यदि डोनाल्ड ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति बनते हैं, तो उनका पुराना व्यवहार भारत जैसे साझेदारों के लिए अनिश्चितता और अस्थिरता का संकेत है।
कृषि, ऊर्जा और रणनीतिक स्वायत्तता पर गहरा संकट
भारत की कृषि व्यवस्था, जो देश की लगभग आधी आबादी का जीवन आधार है, इस समझौते के बाद सबसे ज्यादा प्रभावित हो सकती है। छोटे किसान, जो औसतन 1.1 हेक्टेयर भूमि पर खेती करते हैं, अमेरिकी विशाल कृषि कंपनियों की सब्सिडी और तकनीकी उन्नति का मुकाबला नहीं कर सकते। अमेरिका चाहता है कि भारत अपने कृषि बाजारों को GMO सोयाबीन, मकई, गेहूं, इथेनॉल, डेयरी और पोल्ट्री उत्पादों के लिए खोले। यदि ये उत्पाद भारत में भरकर आ जाते हैं, तो घरेलू किसानों को मंडियों में मिलने वाला मूल्य गिर जाएगा, जिससे 2020 के किसान आंदोलन से भी बड़ा संकट खड़ा हो सकता है।
सोया प्रोसेसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (SOPA) ने अमेरिका से GMO आधारित सोया तेल के आयात का विरोध किया है। उनका मानना है कि इससे देश के छोटे उद्योग समाप्त हो सकते हैं। इसी तरह, इथेनॉल निर्माता और चीनी मिल मालिक चिंतित हैं कि सस्ते अमेरिकी इथेनॉल से उनका बाजार तबाह हो जाएगा। NITI आयोग की एक रिपोर्ट ने GM मक्का के आयात का सुझाव दिया, लेकिन इसके पर्यावरणीय और निर्यात पर असर की अनदेखी की गई।
GMO उत्पादों के चलते भारतीय जैविक निर्यात—जैसे शहद, चाय, चावल—को यूरोपीय देशों में अस्वीकृति मिल सकती है, क्योंकि यूरोपीय संघ GMO के खिलाफ सख्त नीति अपनाता है। यह न केवल किसानों की आमदनी को प्रभावित करेगा, बल्कि भारत की वैश्विक जैविक पहचान को भी धक्का पहुंचाएगा।
ऊर्जा के मोर्चे पर भी भारत पर अमेरिका दबाव बना रहा है कि वह रूस से कच्चे तेल की खरीद कम करे। रूस से रियायती दरों पर तेल खरीदने से भारत ने अपने चालू खाते में सुधार किया है और घरेलू ईंधन मूल्य स्थिर रखे हैं। लेकिन अमेरिका चाहता है कि भारत अपने पुराने सहयोगी रूस से दूरी बनाए। यह केवल ऊर्जा का मुद्दा नहीं है—यह रणनीतिक स्वतंत्रता को सीमित करने का प्रयास है।
रक्षा क्षेत्र में भी अमेरिका चाहता है कि भारत रूसी हथियार खरीदना बंद करे। वहीं दूसरी ओर अमेरिका पाकिस्तान के सैन्य प्रमुख को सम्मानित करता है और कूटनीतिक मंचों पर भारत के खिलाफ हमलों पर चुप्पी साधे रहता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अमेरिका की प्राथमिकताएं रणनीतिक नहीं, बल्कि व्यापारिक और राजनीतिक हैं।
इतिहास में जब ग्रीस को IMF से ऋण लेना पड़ा था, तो उसकी संप्रभुता तक गिरवी रख दी गई थी। भारत को यह समझने की आवश्यकता है कि व्यापारिक समझौते कभी-कभी आर्थिक लाभ से अधिक राजनीतिक नियंत्रण का माध्यम बन जाते हैं।
सौदे से पहले सीमाएं तय करें
भारत-अमेरिका व्यापार समझौते को केवल एक आर्थिक दस्तावेज समझना भूल होगी। यह सौदा दर्शाता है कि भारत भविष्य में किस प्रकार की वैश्विक भूमिका निभाना चाहता है—क्या हम स्वतंत्र नीतियों वाले लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं, या केवल प्रतीकात्मक उपलब्धियों से संतुष्ट रहने वाले साझेदार?
यह समझौता हमारी खाद्य नीति, ऊर्जा रणनीति, और डिजिटल संप्रभुता को प्रभावित कर सकता है। यदि इसके बदले हमें अपनी आवाज़ दबानी पड़े, किसानों को संकट में डालना पड़े, और अपनी पुरानी रणनीतिक साझेदारियों को छोड़ना पड़े—तो यह समझौता भारत के लिए घाटे का सौदा बन सकता है।
आज आवश्यकता है कि भारत स्पष्ट रूप से अपनी सीमाएं तय करे—कौन सी बातें अक्षम्य हैं, और किन चीजों पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। यह समय तालियों का नहीं, निर्णय का है। यदि हमने समय रहते अपने हितों की रेखाएं नहीं खींचीं, तो आने वाला कल हमें अपने निर्णयों की भारी कीमत चुकाने पर मजबूर कर देगा।