लेखक : अमित पांडेय
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 को चुनाव आयोग ने “सभी चुनावों की जननी” कहा है। यह उपाधि यूं ही नहीं मिली — क्योंकि इस बार की जंग सिर्फ सत्ता की नहीं, बल्कि नेतृत्व की है। दो चरणों में 6 और 11 नवंबर को होने वाले मतदान यह तय करेंगे कि नीतीश कुमार एक बार फिर मुख्यमंत्री बनेंगे या बिहार की सियासत में नई इबारत लिखी जाएगी।
एनडीए गठबंधन, जिसमें भाजपा, जदयू और लोजपा शामिल हैं, चुनावी मैदान में पूरी ताकत के साथ उतर चुका है। लेकिन गठबंधन के भीतर का माहौल उतना सहज नहीं है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो पिछले दो दशकों से बिहार की राजनीति का सबसे स्थिर चेहरा रहे हैं, अब पहले से कहीं अधिक दबाव में हैं। सीट बंटवारे को लेकर उनकी नाराज़गी और भाजपा की बढ़ती सक्रियता ने यह संकेत दे दिया है कि अगर एनडीए जीतता भी है, तो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कौन बैठेगा — यह सवाल बना रहेगा। भाजपा के कई नेता पहले ही कह चुके हैं कि “बिहार को नई ऊर्जा की जरूरत है”, जो राजनीतिक गलियारों में नेतृत्व परिवर्तन की चाहत के संकेत के रूप में देखी जा रही है।
हालांकि नीतीश कुमार की पकड़ को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। उनका “सुशासन” वाला ब्रांड आज भी गांवों और वरिष्ठ मतदाताओं के बीच असर रखता है। राजनीतिक विश्लेषक अजय कुमार के शब्दों में, “नीतीश बिहार की राजनीति का ध्रुव हैं — कोई पार्टी उनसे पूरी तरह दूर भी नहीं जा सकती, क्योंकि सत्ता की गणित में उनकी भूमिका हमेशा निर्णायक रहती है।” लेकिन यह भी सच है कि उनकी छवि अब पहले जैसी अटल नहीं रही। लगातार पाला बदलने — कभी एनडीए में, कभी महागठबंधन में — ने जनता में भ्रम पैदा किया है कि नीतीश आज किस विचारधारा के प्रतिनिधि हैं।
उधर, महागठबंधन यानी इंडिया ब्लॉक में नई जान फूंकने का काम किया है तेजस्वी यादव ने। लालू यादव के बेटे ने खुद को मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में पेश किया है और बेरोज़गारी, पलायन व शिक्षा जैसे मुद्दों पर आक्रामक अभियान छेड़ रखा है। उनका नारा “नौकरी और नैतिकता” युवाओं में गूंज पैदा कर रहा है। हाल ही में एक रैली में उन्होंने कहा, “यह चुनाव बिहार के भविष्य का है, उसके अतीत का नहीं।” तेजस्वी की यह लाइन साफ़ तौर पर नीतीश कुमार पर निशाना थी।
लेकिन विपक्षी खेमे की अपनी दिक्कतें भी कम नहीं हैं। कांग्रेस संगठनात्मक रूप से कमजोर है, जबकि वाम दलों की उपस्थिति सीमित है। आरजेडी का वोटबैंक अब भी यादव-मुस्लिम समीकरण पर टिका है, जिसे विस्तार देना पार्टी के लिए चुनौती है। फिर भी, नीतीश सरकार के प्रति असंतोष और गठबंधन राजनीति की थकान ने महागठबंधन को उम्मीद दी है कि सत्ता परिवर्तन संभव है।
इसी बीच, एक तीसरा चेहरा धीरे-धीरे सुर्खियों में जगह बना रहा है — प्रशांत किशोर। कभी चुनावी रणनीतिकार रहे किशोर अब “जन सुराज” अभियान के जरिए एक वैकल्पिक राजनीति का दावा कर रहे हैं। वे बिहार के लगभग हर जिले में जाकर लोगों से संवाद कर चुके हैं। उनकी शैली सीधे जनता से जुड़ने की है, नारेबाज़ी की नहीं। हालांकि परंपरागत दल उन्हें “स्पॉइलर” मानते हैं, पर विश्लेषक मानते हैं कि वे नाराज़ मतदाताओं को आकर्षित कर सकते हैं। क्या यह समर्थन सीटों में बदलेगा, कहना मुश्किल है, लेकिन उनकी उपस्थिति ने सियासी गणित को ज़रूर उलझा दिया है।
बिहार की राजनीति सामाजिक समीकरणों से गहराई से जुड़ी है। भाजपा ऊपरी जाति और गैर-यादव पिछड़ों पर निर्भर है, जदयू की पकड़ कुर्मी और महादलित वोटरों में है, जबकि आरजेडी का आधार यादव और मुस्लिम वर्ग है। लेकिन सीएसडीएस के संजय कुमार का कहना है, “इस बार सिर्फ जाति नहीं, नेतृत्व की विश्वसनीयता भी तय करेगी कि बिहार किसके हाथ में जाएगा। जनता अब स्थिरता और जवाबदेही चाहती है।”
दरअसल, बिहार की जनता के सामने असली सवाल अब भी वही हैं — बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और पलायन। 2024 में ही छह लाख से ज़्यादा बिहारी रोज़गार के लिए दूसरे राज्यों में गए। लेकिन यह मुद्दे राजनीतिक बहस में कहीं पीछे छूट गए हैं। जनता के लिए चुनाव का मतलब सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि जीवन स्तर में सुधार है।
नीतीश कुमार खुद को आत्मविश्वास से भरा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। वे कहते हैं, “यह चुनाव काम का है, बातों का नहीं।” भाजपा उनके साथ भी है और उनके बाद की तैयारी में भी। विपक्ष को भरोसा है कि इस बार जनता बदलाव चाहेगी। और प्रशांत किशोर का कहना है, “मैं सरकार बनाने नहीं, व्यवस्था बदलने निकला हूं।”
नवंबर के नतीजे सिर्फ बिहार की राजनीति नहीं, बल्कि देश में गठबंधन राजनीति के भविष्य का रुख तय करेंगे। क्या बिहार फिर नीतीश कुमार को चुनेगा, या सत्ता किसी नए चेहरे के हाथ में जाएगी? क्या जनता स्थिरता को तरजीह देगी या बदलाव को मौका देगी? इन सवालों के जवाब ही तय करेंगे कि इस बार “जननी चुनाव” किसे नया जनादेश देती है।