नीतीश कुमार ने ललन सिंह और संजय झा पर भरोसा कर उन्हें भाजपा से संवाद का जिम्मा सौंपा, पर दोनों नेता भाजपा की रणनीति में उलझ गए। नीतीश ने जैसे-तैसे खुद को बचाया, पर पार्टी को नुकसान हुआ। अब जदयू नेतृत्व संकट और भाजपा की चाल दोनों से जूझ रहा है।
अमित पांडे: संपादक
बिहार की राजनीति में एक बार फिर से ऐसा मोड़ आया है जहाँ जनता दल (यूनाइटेड) अपने ही भीतर से चुनौती का सामना कर रहा है। नीतीश कुमार, जिनकी छवि एक संतुलित और अनुभवी नेता की रही है, अब अपनी ही पार्टी में नेतृत्व के संकट से जूझते दिख रहे हैं। यह संकट केवल आंतरिक असहमति का नहीं, बल्कि एक गहरी राजनीतिक चाल का संकेत भी हो सकता है।
नीतीश कुमार ने संजय झा और ललन सिंह पर भरोसा करके उन्हें भाजपा से संवाद करने का जिम्मा सौंपा था। वे उनके “मैसेंजर” थे—नीतीश की रणनीति को आगे बढ़ाने वाले। लेकिन जब सीट शेयरिंग की असली बातचीत शुरू हुई, तो यही दोनों नेता भाजपा की तरफ से “बोलिंग” करने लगे। नीतीश के लिए यह एक झटका था। विपक्ष से किसी ने उन्हें समय रहते “हॉसियार” किया, और उन्होंने जैसे-तैसे अपना “विकेट” तो बचा लिया, लेकिन पार्टी को “रन आउट” होने से नहीं बचा पाए।
इस घटनाक्रम के बाद नीतीश ने स्पष्ट शब्दों में ललन सिंह और संजय झा से कहा—”अब बहुत हुआ”। पार्टी की रणनीति, जिसे उन्होंने खुद रचा था, अब उन्हीं के खिलाफ इस्तेमाल हो रही थी। इसका पहला शिकार चिराग पासवान बने, जिनके खिलाफ जदयू ने आक्रामक रणनीति अपनाई थी। लेकिन अब जब प्रधानमंत्री का फोन उठाना भी नीतीश ने बंद कर दिया है, तो यह संकेत है कि वे इस “डैमेज” को गंभीरता से ले रहे हैं।
ललन सिंह का भाजपा के प्रति नरम रुख कई सवाल खड़े करता है। क्या वे भाजपा के साथ किसी रणनीतिक संवाद में हैं? क्या वे जदयू के भीतर एक वैकल्पिक नेतृत्व स्थापित करना चाहते हैं? या फिर यह सब एक सोची-समझी रणनीति है जिससे जनता को भाजपा की अंदरूनी चालों का संकेत दिया जा सके?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा बिहार में एक बार फिर से “डिवाइड एंड डिल्यूट” की नीति अपना रही है। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में इसी तरह की रणनीति अपनाकर भाजपा ने सहयोगी दलों को कमजोर किया और सत्ता में अपनी पकड़ मजबूत की। बिहार में भी भाजपा ने जदयू के भीतर ऐसे नेताओं को प्रोत्साहित किया है जो नीतीश कुमार की लाइन से अलग चल रहे हैं।
तेजस्वी यादव ने हाल ही में कहा कि “जदयू अब नीतीश कुमार के साथ नहीं है” और आरोप लगाया कि पार्टी के तीन नेता भाजपा के इशारे पर काम कर रहे हैं। यह बयान राजनीतिक रूप से भले ही आक्रामक हो, लेकिन यह इस बात की पुष्टि करता है कि जदयू में आंतरिक मतभेद सार्वजनिक हो चुके हैं।
वहीं दूसरी ओर, नीतीश कुमार के करीबी नेता नीरज कुमार लगातार भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। वे हर मुद्दे पर भाजपा की आलोचना कर रहे हैं और नीतीश कुमार की नीतियों का समर्थन कर रहे हैं। यह स्पष्ट करता है कि जदयू में दो ध्रुव बन चुके हैं—एक जो भाजपा के साथ सामंजस्य की कोशिश कर रहा है और दूसरा जो नीतीश कुमार की नेतृत्व क्षमता को बनाए रखना चाहता है।
इस पूरे घटनाक्रम में एक और नाम सामने आता है—आरसीपी सिंह। ललन सिंह ने पहले भी आरसीपी सिंह की भाजपा से नजदीकी पर सवाल उठाए थे। अब जब वही आरोप उन पर लग रहे हैं, तो यह राजनीतिक विडंबना है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि जदयू में अवसरवादिता की राजनीति हावी हो चुकी है।
अंततः यह कहना गलत नहीं होगा कि जदयू एक नेतृत्व संकट से गुजर रहा है। लेकिन यह संकट केवल व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का परिणाम नहीं है। यह एक बड़ी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है, जिसमें ललन सिंह और संजय झा जैसे नेता भाजपा की चालों को उजागर करने का प्रयास कर रहे हैं। जनता को इस द्वंद्व को समझना होगा और यह तय करना होगा कि वे किस नेतृत्व पर विश्वास करें—जो सत्ता के लिए समझौता करता है या जो सच्चाई के लिए संघर्ष करता है।