अमित पांडे: संपादक
लद्दाख की राजधानी लेह में हाल की हिंसा ने न केवल चार लोगों की जान ले ली बल्कि पूरे देश का ध्यान इस ओर खींचा कि आखिर सरकार और जनता के बीच संवाद क्यों असफल रहा। घटना के अगले ही दिन सीबीआई द्वारा पर्यावरणविद और आंदोलनकारी सोनम वांगचुक के संस्थान के ख़िलाफ़ एफसीआरए उल्लंघन की जांच की पुष्टि ने राजनीतिक हलकों में तीखी बहस छेड़ दी है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह जांच महज़ एक संयोग है या फिर सरकार का वह परिचित तरीका, जिसके तहत लोकप्रिय आंदोलनों के नेताओं को बदनाम कर असली मुद्दों से ध्यान हटाया जाता है।
दरअसल, लद्दाख के लोग लंबे समय से राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची के प्रावधानों की मांग कर रहे हैं ताकि उनकी जनजातीय पहचान और नाजुक पर्यावरणीय संतुलन को संरक्षित किया जा सके। पांच साल से अधिक समय से शांति पूर्ण आंदोलन चल रहा था, लेकिन सरकार ने बार-बार आश्वासन देने के बावजूद ठोस कदम नहीं उठाए। परिणामस्वरूप युवाओं में हताशा, बेरोजगारी और लगातार अधूरी रह गई उम्मीदें हिंसक रूप में फूट पड़ीं। इस संदर्भ में वांगचुक का यह कहना कि सरकार “बलि का बकरा” खोजने में व्यस्त है, वास्तविकता के क़रीब लगता है।
केंद्र सरकार की नीति को देखें तो यह पैटर्न नया नहीं है। चाहे किसान आंदोलन रहा हो, सीएए विरोध प्रदर्शन या मणिपुर की जातीय हिंसा—हर जगह सरकार ने असहमति जताने वालों को देश-विरोधी, बाहरी प्रभाव या व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित बताने की कोशिश की। संवाद और समाधान की बजाय टकराव और बदनामी का रास्ता अपनाया गया। लद्दाख के संदर्भ में भी यही हो रहा है। गृहमंत्रालय का यह बयान कि वांगचुक और “राजनीतिक रूप से प्रेरित लोग” हिंसा के पीछे हैं, मुद्दे से बचने का प्रयास प्रतीत होता है।
भाजपा के ही एक वरिष्ठ नेता, जिन्होंने नाम न छापने की शर्त पर बातचीत की, ने माना कि “सरकार को जनता से संवाद के बजाय टकराव का रास्ता नहीं चुनना चाहिए। लद्दाख की समस्या वास्तविक है, इसे साजिश या उकसावे की संज्ञा देकर हल नहीं किया जा सकता।” यह टिप्पणी साफ़ करती है कि पार्टी के भीतर भी सरकार की रणनीति पर सवाल उठ रहे हैं।
वांगचुक स्वयं कह रहे हैं कि उनकी गिरफ्तारी से सरकार को और मुश्किलें खड़ी होंगी, क्योंकि जनता का गुस्सा असल में रोजगार और राज्यत्व से जुड़ी अधूरी मांगों का परिणाम है। उनका यह कथन कि “चालाकी में बलि का बकरा बनाया जा सकता है, लेकिन यह बुद्धिमानी नहीं होगी” मौजूदा हालात में बेहद प्रासंगिक है। यह हिंसा अचानक नहीं हुई, बल्कि वर्षों की उपेक्षा और संवादहीनता का नतीजा थी।
लेह में बीते बुधवार को जिस तरह युवा सड़कों पर उतरे, भाजपा कार्यालय और हिल काउंसिल को निशाना बनाया, वह सरकार पर जनता के गहरे अविश्वास का संकेत है। पुलिस और अर्धसैनिक बलों को आंसू गैस का सहारा लेना पड़ा और आखिरकार कर्फ्यू लगाना पड़ा। लेकिन यह महज़ ‘कानून-व्यवस्था’ का मामला नहीं है। यह उस गहराई से जुड़ा है जिसमें लोग महसूस करते हैं कि उनकी पहचान, अधिकार और भविष्य के साथ समझौता किया जा रहा है।
राजनीतिक विश्लेषक प्रो. संजय कुमार का कहना है, “सरकार यह मानने को तैयार नहीं है कि पांच साल से जारी आंदोलन में हिंसा का विस्फोट उसकी अपनी विफलताओं का परिणाम है। किसी लोकप्रिय नेता को बलि का बकरा बनाकर स्थिति पर काबू नहीं पाया जा सकता। इससे हालात और बिगड़ेंगे।”
केंद्र सरकार का तर्क है कि उच्च स्तरीय समिति के जरिए लगातार संवाद हो रहा है। लेकिन सवाल यह है कि इन बैठकों का ठोस परिणाम क्यों सामने नहीं आया? यदि संवाद वास्तव में कारगर होता, तो युवाओं को हिंसा का रास्ता अपनाने की नौबत क्यों आती? यही वह बिंदु है जहां सरकार की मंशा और विश्वसनीयता दोनों पर सवाल उठते हैं।
सोनम वांगचुक जैसे लोकप्रिय नेता पर एफसीआरए जांच थोपने से यह संदेश जाता है कि सरकार मुद्दों को हल करने के बजाय असहमति की आवाज़ों को दबाने में व्यस्त है। यह लोकतंत्र की उस आत्मा के ख़िलाफ़ है जिसमें असहमति को भी सम्मानजनक स्थान दिया गया है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि सरकार को वांगचुक को बदनाम करने से कुछ हासिल नहीं होगा, क्योंकि जनता का गुस्सा व्यक्ति-विशेष पर नहीं बल्कि अधूरी मांगों और बेरोजगारी की पीड़ा पर केंद्रित है।
लद्दाख की हिंसा को ‘षड्यंत्र’ बताना और इसे विपक्ष या कुछ नेताओं की भड़काऊ गतिविधि का परिणाम कहना उस वास्तविकता को छुपाने की कोशिश है जो ज़मीन पर मौजूद है। पांच साल तक शांति पूर्ण आंदोलन चलाने वाले लोगों ने आखिर हिंसा क्यों की? इसका जवाब सरकार के पास नहीं है। इसके बजाय, बल प्रयोग और जांच एजेंसियों के इस्तेमाल से हालात और बिगड़ सकते हैं।
आख़िरकार, सवाल यह है कि क्या सरकार लद्दाख की जनता की आवाज़ सुनेगी या फिर उसे दबाने की कोशिश करेगी। हिंसा के बाद लगे कर्फ्यू और चार मौतों ने यह साफ़ कर दिया है कि अब समय है ठोस कदम उठाने का, न कि नेताओं को बलि का बकरा बनाने का। सोनम वांगचुक को बदनाम करना शायद सरकार के लिए एक अल्पकालिक रणनीति हो, लेकिन दीर्घकालिक समाधान केवल संवाद, पारदर्शिता और वादों को पूरा करने में ही छिपा है। अन्यथा, लद्दाख एक और ऐसा प्रतीक बन जाएगा जहां लोकतंत्र की असल ताक़त—जनता की आवाज़—को नज़रअंदाज़ किया गया और उसके नतीजे बेहद गंभीर निकले।