बाढ़ पंजाब को निगल गई—धान की चार लाख एकड़ फसल डूब गई, दस लाख से अधिक पशु बह गए, 56 ज़िंदगियाँ ख़त्म हो गईं, हज़ारों स्कूल और सड़कें खंडहर बन गए। राज्य सरकार ने आकलन किया है कि कुल नुकसान 20,000 करोड़ रुपये से कम नहीं है। यह केवल पंजाब का संकट नहीं है, बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा और किसानों की जीविका का संकट है। और इसी भीषण त्रासदी के बीच केंद्र सरकार का राहत पैकेज आया—मात्र 1,600 करोड़ रुपये।
राहुल गांधी ने इसे पंजाब के साथ ‘घोर अन्याय’ कहा। और वे गलत भी नहीं हैं। यह पैकेज इतना छोटा है कि अगर इसे वास्तविक नुकसान से तुलना करें तो यह 20,000 करोड़ के मुकाबले एक बूँद जैसा है। सरकार का कहना है कि यह ‘प्रारंभिक सहायता’ है और बाद में वास्तविक आकलन के आधार पर और मदद दी जाएगी। लेकिन सवाल उठता है कि जब लोगों के घर डूब चुके हैं, ज़मीन बंजर हो चुकी है और पशुधन खत्म हो गया है, तो क्या राहत भी ‘किस्तों’ में दी जानी चाहिए? क्या जनता को इंतज़ार करना चाहिए जब तक फ़ाइलें दिल्ली के गलियारों से गुज़रें और समितियाँ रिपोर्ट तैयार करें?
यह सच है कि केंद्र की प्रक्रिया हमेशा ऐसी ही रही है। उत्तराखंड (2013), केरल (2018) और असम (2022) की बाढ़ों में भी पहले सीमित राशि दी गई थी। लेकिन पंजाब की स्थिति अलग है। यह राज्य पहले से ही कृषि संकट और कर्ज़ में डूबा है। किसान आत्महत्या की कगार पर हैं। ऊपर से बाढ़ का कहर, जिसने लाखों गरीब परिवारों को बेघर कर दिया। इस स्थिति में राहत का पैमाना कहीं बड़ा होना चाहिए था।
यहाँ राजनीति भी छिपी नहीं है। पंजाब न तो भाजपा का गढ़ है और न ही वहाँ केंद्र की पार्टी की कोई ठोस ज़मीन। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों केंद्र विरोधी राजनीति कर रही हैं। ऐसे में लोगों को यह आभास होना स्वाभाविक है कि केंद्र पंजाब की पीड़ा को प्राथमिकता नहीं दे रहा। राहुल गांधी के आरोप इसीलिए असरदार लगते हैं, क्योंकि वे केवल आँकड़ों पर नहीं, बल्कि पंजाबियों के आत्मसम्मान पर चोट करते हैं। वह कहते हैं कि अन्नदाता राज्य को ‘टुकड़ों में राहत’ देना अपमान है।
केंद्र के तर्कों में तकनीकी मजबूरी हो सकती है, परंतु संवेदनशीलता का अभाव साफ़ झलकता है। जब प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर जाते हैं, तो अरबों रुपये के समझौते करने में कोई झिझक नहीं होती। लेकिन जब देश के एक राज्य की जनता त्रासदी से जूझ रही होती है, तो राहत पैकेज की राशि हजारों करोड़ से घटकर कुछ सौ करोड़ में क्यों सिमट जाती है? यह असंतुलन केवल राजनीतिक प्रश्न नहीं, नैतिक प्रश्न भी है।
पंजाब की त्रासदी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमारी आपदा प्रबंधन प्रणाली वास्तव में कितनी सक्षम है। राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण का ढाँचा कागज़ पर मज़बूत दिखता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत यही है कि राहत अक्सर देर से और अपर्याप्त पहुँचती है। परिणाम यह होता है कि प्रभावित लोग या तो अपने संसाधनों से जूझते हैं या फिर परोपकारी संगठनों और नागरिक समाज की दया पर निर्भर हो जाते हैं। यह किसी भी लोकतांत्रिक और कल्याणकारी राज्य की तस्वीर नहीं होनी चाहिए।
राहुल गांधी ने अपने पत्र और बयानों में जिस ‘बोल्डर रिस्पॉन्स’ की मांग की है, वह केवल राजनीतिक नारा नहीं है। वह इस बुनियादी सच्चाई की ओर इशारा करता है कि जब आपदा इतनी व्यापक हो, तो प्रतिक्रिया भी उसी अनुपात में होनी चाहिए। राहत पैकेज केवल पैसों का सवाल नहीं है, यह भरोसे का सवाल है। पंजाब के किसानों और बाढ़ पीड़ितों को भरोसा दिलाना ज़रूरी है कि भारत उनके साथ खड़ा है, न कि उन्हें अकेला छोड़ रहा है।
आज जब हम पंजाब के आँकड़े देखते हैं—20,000 करोड़ का नुकसान, लाखों परिवार प्रभावित, सैकड़ों गाँव बर्बाद—तो 1,600 करोड़ का पैकेज सचमुच एक गंभीर अन्याय प्रतीत होता है। यह केवल कांग्रेस का आरोप नहीं, बल्कि हर नागरिक का सवाल होना चाहिए। अगर यह संकट किसी और राज्य में होता जहाँ राजनीतिक समीकरण अनुकूल होते, तो क्या राहत पैकेज इतना ही छोटा होता?
पंजाब के साथ न्याय करने का अर्थ है केवल वित्तीय मदद देना नहीं, बल्कि यह स्वीकार करना कि यह राज्य भारत की खाद्य सुरक्षा की रीढ़ है। इसकी तकलीफ़ को हल्के में लेना पूरे देश की सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के साथ खिलवाड़ है। केंद्र को चाहिए कि वह जल्द से जल्द एक व्यापक और समुचित पैकेज घोषित करे, ताकि यह संदेश जाए कि भारत अपने अन्नदाता के साथ खड़ा है।
वरना राहुल गांधी का यह आरोप—‘पंजाब के साथ घोर अन्याय’—इतिहास की किताबों में दर्ज हो जाएगा और केंद्र सरकार की संवेदनहीनता का प्रतीक बनकर उभरेगा।