अमित पांडे: संपादक
करवा चौथ 2025 के अवसर पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने महिला रजिस्ट्री कर्मचारियों को 10 अक्टूबर को पारंपरिक ‘सौम्य वस्त्र’ पहनने की अनुमति दी है। यह निर्णय एक औपचारिक सर्कुलर के माध्यम से जारी किया गया, जिसमें कहा गया कि “करवा चौथ के अवसर पर, सक्षम प्राधिकारी ने महिला कर्मचारियों की ओर से प्राप्त अनुरोध को स्वीकार कर लिया है और उन्हें निर्धारित यूनिफॉर्म के स्थान पर पारंपरिक सौम्य वस्त्रों में कार्यालय आने की अनुमति दी जाती है।” यह खबर जितनी सामान्य लगती है, उतनी ही गहरी सामाजिक और सांस्कृतिक चिंता को जन्म देती है।
प्रश्न यह है कि क्या अब भारत में व्रत, पूजा और पारंपरिक आस्था के पालन के लिए भी न्यायालय की अनुमति आवश्यक हो गई है? करवा चौथ कोई नया पर्व नहीं है। यह सदियों से भारतीय समाज में विशेषकर उत्तर भारत में विवाहित महिलाओं द्वारा पति की दीर्घायु के लिए रखा जाने वाला उपवास है। इसमें महिलाएं दिनभर निर्जल व्रत रखती हैं, चंद्रदर्शन के बाद पूजा कर उपवास तोड़ती हैं और पारंपरिक वस्त्रों में सजती हैं। यह एक निजी, सांस्कृतिक और धार्मिक आस्था का विषय है। फिर ऐसा क्या हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय को इस पर सर्कुलर जारी करना पड़ा?
दरअसल, यह घटना उस सामाजिक परिवर्तन की ओर इशारा करती है जहाँ संस्थानों में आस्था और परंपरा को ‘अनुमति’ के दायरे में लाया जा रहा है। यह केवल एक ड्रेस कोड की छूट नहीं है, बल्कि यह दर्शाता है कि हमारी संस्थाएं अब उस बुनियादी समझ को खो रही हैं जहाँ परंपरा और आस्था को सहज रूप से स्वीकार किया जाता था। क्या यह संकेत है कि हम एक ऐसे देश की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ हर सांस्कृतिक व्यवहार को पहले औपचारिक अनुमति से गुजरना होगा?
यह भी विचारणीय है कि किन परिस्थितियों में महिला कर्मचारियों को यह अनुरोध करना पड़ा। क्या संस्थागत कठोरता इतनी बढ़ गई है कि एक दिन के लिए पारंपरिक वस्त्र पहनने की भी स्वतंत्रता नहीं रही? क्या यह उस ‘सेंसिटिविटी’ की कमी है जो भारतीय संस्कृति की विविधता को समझने में असमर्थ है?
यह सवाल भी उठता है कि हम किस प्रकार का भारत बना रहे हैं—एक ऐसा भारत जहाँ ‘विकसित राष्ट्र’ की परिभाषा केवल तकनीकी और आर्थिक प्रगति से तय होती है, लेकिन सांस्कृतिक समझ और भावनात्मक बुद्धिमत्ता को नजरअंदाज किया जाता है। क्या यह वही भारत है जो ‘विश्वगुरु’ बनने का दावा करता है, लेकिन अपने ही नागरिकों को उनकी परंपराओं के पालन के लिए अनुमति लेने पर मजबूर करता है?
यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ आस्था और परंपरा को ‘नियमों’ और ‘प्रोटोकॉल’ के तहत परिभाषित किया जाएगा? क्या यह आधुनिकता है या संवेदनहीनता?
करवा चौथ पर सर्वोच्च न्यायालय की यह अनुमति एक प्रतीक है—एक चेतावनी कि अगर हम अपनी सांस्कृतिक सहजता को खो देंगे, तो हम केवल एक ‘प्रशासित राष्ट्र’ बनकर रह जाएंगे, न कि एक जीवंत समाज। और तब प्रश्न यही रहेगा: क्या व्रत की अनुमति भी अब न्यायालय से लेनी होगी?