अमित पांडे: संपादक
बिहार की राजनीति एक बार फिर गर्म है। 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले दोनों प्रमुख गठबंधन—महागठबंधन (INDIA Bloc) और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA)—अपने-अपने अंतर्विरोधों से जूझ रहे हैं। एक ओर विपक्षी खेमे में नेतृत्व और सीट बंटवारे को लेकर असमंजस गहराता जा रहा है, वहीं सत्ता पक्ष में भी वर्चस्व की जंग थमने का नाम नहीं ले रही। हर पार्टी की मंशा साफ है—साथ रहकर भी खुद को “बड़ा” साबित करना।
नई दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने बुधवार को बयान देकर इस राजनीतिक सरगर्मी को और हवा दे दी। उन्होंने कहा, “हम जल्द ही बिहार में सीट शेयरिंग को लेकर बैठक करने जा रहे हैं। हमारे सहयोगी दलों से बातचीत जारी है।” यह बयान ऐसे समय आया है जब महागठबंधन के भीतर तालमेल को लेकर सवाल उठने लगे हैं। राजद (RJD), कांग्रेस और वामपंथी दलों के इस गठबंधन से मतदाता “एकजुटता” की उम्मीद कर रहे हैं, लेकिन भीतर से समीकरण कुछ और कहानी कह रहे हैं।
कांग्रेस सूत्रों के अनुसार, पार्टी बिहार की 243 सीटों में से लगभग 70 सीटों पर दावा ठोक रही है, यह कहते हुए कि उसका प्रभाव क्षेत्र किशनगंज, भागलपुर और औरंगाबाद जैसे जिलों में मजबूत है। लेकिन तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाली राजद अपनी प्रमुखता बनाए रखना चाहती है और अधिकांश सीटों पर दावा करने की तैयारी में है। यही वजह है कि कांग्रेस अब खुलकर “साझा नेतृत्व” की मांग कर रही है। एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने कहा कि “गठबंधन किसी एक व्यक्ति का शो नहीं हो सकता। इसमें सभी दलों की हिस्सेदारी और गरिमा बनी रहनी चाहिए।”
दूसरी तरफ, महागठबंधन के भीतर “मुख्यमंत्री चेहरा” तय करने को लेकर भ्रम की स्थिति है। राजद यह स्पष्ट कर चुकी है कि उसका चेहरा तेजस्वी यादव ही होंगे, जबकि कांग्रेस और वामदल किसी एक व्यक्ति को आगे लाने से बच रहे हैं। इससे यह संदेश जा रहा है कि विपक्षी एकता के दावे अब राजनीतिक स्वार्थों की बुनियाद पर खड़े हैं, विचारधारा के आधार पर नहीं।
उधर, सत्तारूढ़ एनडीए में भी सब कुछ सुचारू नहीं है। जेडीयू (JD-U) और भाजपा (BJP) के बीच सीट बंटवारे को लेकर तनाव खुलकर सामने आ चुका है। भाजपा 2024 लोकसभा चुनाव में अपने प्रदर्शन के आधार पर विधानसभा में ज्यादा सीटों की मांग कर रही है, जिससे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की परंपरागत पकड़ कमजोर पड़ती दिख रही है। वहीं लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) भी अपने हिस्से की सीटों को लेकर आक्रामक रुख अपनाए हुए है और संकेत दे चुकी है कि यदि “सम्मानजनक हिस्सेदारी” नहीं मिली तो वह स्वतंत्र रूप से मैदान में उतरेगी।
राजनीतिक विश्लेषक प्रो. नवल किशोर का कहना है कि यह पूरा खेल “अहंकार बनाम विचारधारा” का है। उनके अनुसार, “हर दल चाहता है कि वह गठबंधन में बड़ा दिखे। नतीजा यह हो रहा है कि दोनों गठबंधनों के भीतर एकता का भाव कमजोर हो रहा है और सीटों की राजनीति हावी है।”
दरअसल, बिहार की राजनीति में गठबंधन अब वैचारिक साझेदारी से ज्यादा सत्ता-साझेदारी का गणित बन चुके हैं। महागठबंधन के नेता भाजपा विरोध के नाम पर एक मंच पर तो आ रहे हैं, परंतु उनके बीच “कौन मुख्यमंत्री बनेगा” का सवाल एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता का संकेत दे रहा है। इसी तरह एनडीए में भाजपा की बढ़ती ताकत और नीतीश कुमार की घटती पकड़ यह दिखा रही है कि सत्ता में बने रहना जितना जरूरी है, उतना ही कठिन भी।
जनता के लिए यह चुनाव केवल दलों का नहीं बल्कि विश्वसनीय नेतृत्व और पारदर्शी शासन की तलाश का होगा। मतदाता अब यह समझ चुके हैं कि “विकास” के नारों के पीछे राजनीतिक दलों का असली उद्देश्य सत्ता की पकड़ मजबूत करना है। इसलिए इस बार का चुनाव यह तय करेगा कि बिहार में “एकता” की राजनीति सच में जनहित के लिए है या केवल कुर्सी की खातिर बना एक अस्थायी समझौता।